यदि मनुष्य एकांत में उलझा रहा तो फिर अनेकांत का दर्शन कैसे होगा..मुनि श्री मंगलनंद महाराज

यदि मनुष्य एकांत में उलझा रहा तो फिर अनेकांत का दर्शन कैसे होगा..मुनि श्री मंगलनंद महाराज

शिवपुरी…हम सिर्फ धर्म को जानने और देखने के लिए ही अटके हैं। अकेले इससे हमारा कल्याण होने वाला नहीं है, जब तक हम आचरण में धर्म को नहीं उतारेंगे तब तक संसार में भटकते रहेंगे। हमारा कल्याण होने वाला नहीं है। यह बात शहर के छत्री जैन मंदिर पर धर्म सभा को संबोधित करते हुए शनिवार सुबह 9 बजे जैन मुनि मंगल सागर महाराज ने कही।उन्होंने कहा कि अलग-अलग
आचार्य ने धर्म और उसके अलग-अलग परिभाषाएं दी है, जो जैन दर्शन में स्वरूप की। प्रथमानुयोग, करुणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग के अनुसार से वर्णित की गई है। हम इन चार अनुयोग को तो जानते हैं, लेकिन इनमें वर्णित बातों को नहीं जानते। यही वजह है कि अनेकांत दर्शन से हम दूर हैं। धर्म के स्वरूप और धर्म की परिभाषा को पहचानने से हम कतराते हैं। ऐसे में फिर हमारी आत्मा का कल्याण कैसे होगा। मुनि मंगल सागर
महाराज ने धर्म सभा में कहा कि आचार्य कुंदकुंद ने वस्तु स्वभावों धम्मो अर्थात वस्तु के स्वभाव को धर्म कहा। जबकि आचार्य उमा स्वामी महाराज ने तत्वार्थ सूत्र में धर्म के 10 लक्षण बताए, जिनमें
उत्तम क्षमा मार्दव, आर्जव, एकांत में उलझे रहे तो अनेकांत का दर्शन सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, कैसे करोगे- मुनि मंगलानंद महाराज अकिंचन और ब्रह्मचर्य शामिल है। जबकि आचार्य समंतभद्र स्वामी ने सम्यक दर्शन, ज्ञान,
चरित्राणी मोक्ष मार्ग की परिभाषा दी। इसी तरह आचार्य गुण भद्र स्वामी ने जीव की रक्षा करने को धर्म का स्वरूप बताया। ऐसे में अलग-अलग अनुयोग के अनुसार धर्म की यह व्याख्या है। इन्हें हम सिर्फ जानने और देखने में ही उपयोग में ना लाएं, इन्हें जानकर और देखकर जब तक आचरण में इन्हें नहीं उतारेंगे तब तक हम इस शिवपुरी से पारलौकिक शिवपुरी को प्राप्त नहीं कर सकेंगे।
जैन मुनि मंगलानंद महाराज ने कहा कि यदि व्यक्ति एकांत में ही उलझा रहा तो फिर वह अनेकांत का दर्शन कैसे करेगा। इसलिए हमें अनेकांतवादी दृष्टिकोण से समझना होगा। जैसे दूध में घी छुपा है
यह सभी जानते हैं, लेकिन दृश्य नहीं होता। जब तक दूध को मथा नहीं जाता नवनीत नहीं निकालता और फिर उसे गर्म करने पर ही घी की प्राप्ति होती है। ठीक उसी तरह से इस नश्वर देह को पहले धर्म साधना से तपाया जाता है। और फिर क्रमशः अंतरंगता में निर्मल परिणाम आते-आते जीवन में सरलता आती जाती है। और एक दिन ऐसी अवस्था आती है कि हम नवनीत से घी की ओर पहुंच जाते हैं। अर्थात जीवन का जो मूल लक्ष्य है हम उसे प्राप्त करने को आतुर होते हैं। बस यही दशा हमें जीवन की सर्वोच्चता को प्रदान करती है। धर्म सभा के आरंभ में सभी जिनालय के पदाधिकारी और ट्रस्टियों ने श्रीफल समर्पित कर आशीष ग्रहण किया।

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